Bhawani prasad mishra biography of mahatma
भवानी प्रसाद मिश्र
भवानी प्रसाद मिश्र | |
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जन्म | 29 मार्च गाँव टिगरिया, जिला होशंगाबाद (मध्यप्रदेश) भारत |
मौत | फ़रवरी 20, () (उम्र71 वर्ष) नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) भारत |
पेशा | कवि एवं लेखक |
भवानी प्रसाद मिश्र (जन्म: २९ मार्च१९१४ - मृत्यु: २० फ़रवरी१९८५) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि तथा गांधीवादी विचारक थे। वे 'दूसरा सप्तक' के प्रथम कवि हैं। गांंधी-दर्शन का प्रभाव तथा उसकी झलक उनकी कविताओं में स्पष्ट देखी जा सकती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीत-फ़रोश' अपनी नई शैली, नई उद्भावनाओं और नये पाठ-प्रवाह के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। प्यार से लोग उन्हें भवानी भाई कहकर सम्बोधित किया करते थे।
उन्होंने स्वयं को कभी भी निराशा के गर्त में डूबने नहीं दिया। जैसे सात-सात बार मौत से वे लड़े वैसे ही आजादी के पहले गुलामी से लड़े और आजादी के बाद तानाशाही से भी लड़े। आपातकाल के दौरान नियम पूर्वक सुबह-दोपहर-शाम तीनों वेलाओं में उन्होंने कवितायें लिखी थीं जो बाद में त्रिकाल सन्ध्या नामक पुस्तक में प्रकाशित भी हुईं।[1]
भवानी भाई को १९७२ में उनकी कृति बुनी हुई रस्सी पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। १९८१-८२ में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्यकार सम्मान दिया गया तथा १९८३ में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया।
जीवन परिचय
[संपादित करें]भवानीप्रसाद मिश्र का जन्म गाँव टिगरिया, जिला होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) में हुआ था। क्रमश: सोहागपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुरArchived at primacy वेबैक मशीन और जबलपुर में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। १९३४-३५ में उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत विषय लेकर बी०ए० पास किया। महात्मा गांधी के विचारों के अनुसार शिक्षा देने के विचार से एक स्कूल खोलकर अध्यापन कार्य शुरू किया और उस स्कूल को चलाते हुए १९४२ में गिरफ्तार होकर १९४५ में छूटे। उसी वर्ष महिलाश्रम वर्धा में शिक्षा देने एक शिक्षक की तरह गये और चार-पाँच साल वहीं बिताये। कविताएँ लिखना लगभग १९३० से ही नियमित रूप से प्रारम्भ हो गया था और कुछ कविताएँ पं० ईश्वरी प्रसाद वर्मा के सम्पादन में निकलने वाले हिन्दूपंच में हाईस्कूल पास होने के पहले ही प्रकाशित हो चुकी थीं। सन १९३२-३३ में वे माखनलाल चतुर्वेदी के सम्पर्क में आये। चतुर्वेदी जी आग्रहपूर्वक कर्मवीर में उनकी कविताएँ प्रकाशित करते रहे। हंस में भी उनकी काफी कविताएँ छपीं उसके बाद अज्ञेय जी ने 'दूसरा सप्तक' में उन्हें प्रकाशित किया। 'दूसरा सप्तक' के बाद प्रकाशन क्रम ज्यादा नियमित होता गया। उन्होंने चित्रपट के लिये संवाद लिखे और मद्रास के ए०बी०एम० में संवाद निर्देशन भी किया। मद्रास से वे मुम्बई में आकाशवाणी के प्रोड्यूसर होकर गये। बाद में उन्होंने आकाशवाणी केन्द्र दिल्ली में भी काम किया। जीवन के ३३वें वर्ष से वे खादी पहनने लगे। जीवन की सान्ध्य बेला में वे दिल्ली से नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) एक विवाह समारोह में गये थे वहीं अचानक बीमार हो गये और अपने सगे सम्बन्धियों व परिवार जनों के बीच अन्तिम साँस ली। किसी को मरते समय भी कष्ट नहीं पहुँचाया।[1] उनके पुत्र अनुपम मिश्र एक सुपरिचित पर्यावरणविद थे।
प्रमुख कृतियाँ
[संपादित करें]कविता संग्रह- गीत फरोश, चकित है दुख, गान्धी पंचशती, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल सन्ध्या, व्यक्तिगत, परिवर्तन जिए, अनाम तुम आते हो, इदम् न मम, शरीर कविता: फसलें और फूल, मानसरोवर दिन, सम्प्रति, अँधेरी कविताएँ, तूस की आग, कालजयी, नीली रेखा तक और सन्नाटा, ।
बाल कविताएँ -तुकों के खेल,
संस्मरण - जिन्होंने मुझे रचा
निबन्ध संग्रह - कुछ नीति कुछ राजनीति।
विचारधारा
[संपादित करें]भवानी प्रसाद मिश्र उन गिने चुने कवियों में थे जो कविता को ही अपना धर्म मानते थे और आम जनों की बात उनकी भाषा में ही रखते थे। उन्होंने ताल ठोककर कवियों को नसीहत दी थी-
- 'जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
- 'और इसके बाद भीं हम से बड़ा तू दिख।[1]
उनकी बहुत सारी कविताओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि कवि आपसे बोल रहा है, बतिया रहा है। जहाँ अपनी 'गीतफरोश' कविता में कवि ने अपने फ़िल्मी दुनिया में बिताये समय को याद कर कवि के गीतों का विक्रेता बन जाने की विडम्बना को मार्मिकता के साथ कविता में ढाला है वहीं 'सतपुड़ा के जंगल' जैसी कविता सुधी पाठकों को एक अछूती प्रकृति की सुन्दर दुनिया में लेकर चलती है।.उनकी कविताएँ गेय हैं और पाठकों को ताउम्र स्मरण रहती हैं।
वे गूढ़ बातों को भी बहुत ही आसानी और सरलता के साथ अपनी कविताओं में रखते थे। नई कविताओं में उनका काफी योगदान है। उनका सादगी भरा शिल्प अब भी नये कवियों के लिए चुनौती और प्रेरणास्रोत है। वे जनता की बात को जनभाषा में ही रखते थे। उनकी कविताओं में नये भारत का स्वप्न झलकता है। उनकी कविताएँ परिवर्तन और सुधार की अभिव्यक्ति हैं। वे आपातकाल में विरोध में खड़े हो गए और विरोध स्वरूप प्रतिदिन तीन कवितायें लिखते थे। वस्तुत: वे कवियों के कवि थे।